सोरायसिस स्व-प्रतिरक्षित रोग है जो रोगी की त्वचा पर उभर कर आता है. इस रोग में ग्रस्त क्षेत्र पर लाल और सफेद रंगत लिए हुए चिपते हुई संलागी ...
सोरायसिस स्व-प्रतिरक्षित रोग है जो रोगी की त्वचा पर उभर कर आता है. इस
रोग में ग्रस्त क्षेत्र पर लाल और सफेद रंगत लिए हुए चिपते हुई संलागी परत
पाई जाती है जिसमे अत्यंत दुखदायी पीड़ा एवं भयंकर असहनीय खुजलाहट होती
है. रोगी को इतना कष्ट होता है कि उसका रात-दिन का चैन इस रोग के कारण नष्ट
होजाता है.
असल
में यह परत त्वचा का निर्माण करने वाली कोशिकाओं के अति तीव्र व
अनियंत्रित जनन से उत्पन्न होती है. त्वचा की कोशिकाएँ जितनी तेज़ बढ़ती
हैं उतनी ही गति से ये मार जाती है और नतीजा है. इस रोग का प्रभाव अधिकतर
कुहनियों, घुटनों अथवा पीठ के निचले क्षेत्र और सिर के बालों की त्वचा में
अधिक पाया जाता है.
वस्तुतः यह रोग अनेक कारणों से उत्पन्न हो सकता है. परंतु मुख्यतः अनुवांशिक कारक के प्रभाव से इस रोग का संबंध गहरा है. यदि एक अभिभावक अथवा माता-पिता में से किसी एक को यह रोग रहा है तो मेडिकल आँकड़ों के अनुसार व्यक्ति को रोग होने के 15 प्रतिशत संभावना है और यदि दोनो माता और पिता को यह रोग था तो संभावना बढ़कर 50-60 प्रतिशत हो जाती है. गले अथवा ऊपरी श्वसन तंत्र में स्ट्रेपटोकॉकस (Streptococcus) नामक जीवाणु के संक्रमण से यह तकलीफ़ बढ़ जाती है. यदि धूप में रोगी ना बैठता हो तो भी यह तकलीफ़ ज़्यादा घातक रूप ले लेती है. साथ ही तनाव ग्रस्त रहने से और कुछ अँग्रेज़ी (allopathic) दवाइयाँ जैसे कि क्लोरोकिन (chloroquine), क्लॉर्प्रोपमाइड (Chlorpropamide), लीथियम (Lithium) और प्रेक्टल (practoal) से भी इस रोग में अभिवृद्धि पाई जाती है.
इस रोग के साथ-साथ कई लोगों को स्पोंडयलो अर्थ्रिटिज़ (spondyloarthritis: sero- negative arthritis) तथा अन्य संबंधित समायाएँ जैसे कि युरेत्राइटिस (urethritis), आँखों के जलन वाले रोग (eye inflammation diseases), कैंकर सोर्स (canker sores) भी उत्पन्न हो जाती है. अतएव इस रोग का जड़ से निवारण करना अत्यंत आवश्यक है.इसमें विलंभ करना उचित नही है. यदि आपको माता-पिता में से किसी को यह रोग रहा है तो आयुर्वेद के अनुसार दिनचर्या व्यतीत कीजिए और अपथ्य एवं विरुद्धाहार का सेवन कदापि न करें.
विरुद्धहार लेने से त्वचा के अनेक स्व-प्रतिरक्षित रोग उत्पन्न हो जाते हैं. विरुद्धाहार अर्थात वे भोजन जो एक-साथ नही लेने चाहिए जैसे कि मछली और दूध या इससे बने पदार्थ, नमक और दूध, बहुत अधिक दही खाना, काली माह की दाल, समुद्री जीवों (sea-food) को खाने से, खट्टे और नमक वाले पदार्थ खाने से यह रोग उत्पन्न हो सकता है. शराब और तंबाकू के सेवन से भी यह रोग शुरू हो सकता है. आयुर्वेद में रोग उत्पत्ति में आहार की महत्ता पर विशेष ध्यान दिया गया है.
सबसे पहले रोगी को औषधीय घृत जो रोगी की प्रकृति पर निर्भर करता है, इसका सेवन 5-7 दिन तक करना होता है. इसके पश्चात वमन एवं विरेचन द्वारा आँतों को सॉफ किया जाता है. इसके औषधि युक्त लस्सी की धारा सिर पर गिराई जाती है. तत्पश्चात पूरे शरीर पर मिट्टी और औषधियों द्वारा लेप किया जाता है.
बस्ती हर 7 दिन बाद की जाती है तथा औषधियों का सेवन एवं काढ़े कम-से कम 90 दिन तक लिए जाने चाहिए.
दही, काली माह की दाल, मिर्च-मसालेदार भोजन और नमक का सेवन कमतर रखना चाहिए. ठंडे, फ्रिज में रखे भोजन का सेवन रोगी को बिल्कुल भी नही करना चाहिए.
दोपहर
में सोना नही चाहिए. अम्ल युक्त, नमकीन और बासी भोजन का सेवन नही करना
चाहिए. मूली, तिल, गुड़, दही, मछली का सेवन ना करें. विरुद्धाहार का सेवन
ना करें.
लहसुन का सेवन आवश्य करें: लहसुन द्वारा रक्त की शुद्धि होती है. हर रोज़ सुबह खाली पेट लहसुन खाने से इस रोग में लाभ मिलता है.
चमेली के फूल: चमेली के फूलों द्वारा इस रोग में अत्यंत लाभकारी परिणाम देखने को मिलते हैं. इन फूलों को पीसकर इनका लेप ग्रस्त क्षेत्र में करना चाहिए. इससे दर्द एवं कुज़ली वाली जाल्न में आराम मिलता है.
गुग्गूल: एक आयुर्वेदीय औषधि है जिसका गोंद अनेक प्रकार के औषधीय लाभ देता है. इसमें जलन-रोधक और वसा-नियंत्रित करने की गुणवत्ता पाई जाती है. यह वात और कफा दोनो का शमन कर आराम प्रदान करता है. कैषोर गुग्गूल का प्रयोग इस रोग में अत्यंत लाभदायक है.नीम तेल का उपयोग भी जलन को शांत कर अनेक संक्रामक रोगाणुयों से भी ग्रस्त क्षेत्र को सुरक्षा प्रदान करता है. यह फफूंदी और रोगाणुयों को नष्ट कर देता है.
हरिद्रा इसका प्रयोग घरेलू मसाले की तरह किया जाता है और यह एक सप्प्लिमेंट (supplement) की तरह भी इस्तेमाल की जाती है. यह दर्द, सूजन और जलन कम करने में भी सहायक है.

सोरायसिस के कारण (Causes Of Psoriasis In Hindi)
आयुर्वेद के अनुसार रोग के कारण: यह रोग वात और पित्त के विकृत होने के कारण उत्पन्न होता है. यदि कम प्रबलता वाले अनेक विष शरीर में एकत्रित हो जाएँ तो यह रोग के घातक रूप से सामने आती हैं. अनियमित ख़ान-पॅयन संबंधी आदतें, विरुद्धहार इत्यादि से यह रोग उत्पन्न होता है.वस्तुतः यह रोग अनेक कारणों से उत्पन्न हो सकता है. परंतु मुख्यतः अनुवांशिक कारक के प्रभाव से इस रोग का संबंध गहरा है. यदि एक अभिभावक अथवा माता-पिता में से किसी एक को यह रोग रहा है तो मेडिकल आँकड़ों के अनुसार व्यक्ति को रोग होने के 15 प्रतिशत संभावना है और यदि दोनो माता और पिता को यह रोग था तो संभावना बढ़कर 50-60 प्रतिशत हो जाती है. गले अथवा ऊपरी श्वसन तंत्र में स्ट्रेपटोकॉकस (Streptococcus) नामक जीवाणु के संक्रमण से यह तकलीफ़ बढ़ जाती है. यदि धूप में रोगी ना बैठता हो तो भी यह तकलीफ़ ज़्यादा घातक रूप ले लेती है. साथ ही तनाव ग्रस्त रहने से और कुछ अँग्रेज़ी (allopathic) दवाइयाँ जैसे कि क्लोरोकिन (chloroquine), क्लॉर्प्रोपमाइड (Chlorpropamide), लीथियम (Lithium) और प्रेक्टल (practoal) से भी इस रोग में अभिवृद्धि पाई जाती है.
इस रोग के साथ-साथ कई लोगों को स्पोंडयलो अर्थ्रिटिज़ (spondyloarthritis: sero- negative arthritis) तथा अन्य संबंधित समायाएँ जैसे कि युरेत्राइटिस (urethritis), आँखों के जलन वाले रोग (eye inflammation diseases), कैंकर सोर्स (canker sores) भी उत्पन्न हो जाती है. अतएव इस रोग का जड़ से निवारण करना अत्यंत आवश्यक है.इसमें विलंभ करना उचित नही है. यदि आपको माता-पिता में से किसी को यह रोग रहा है तो आयुर्वेद के अनुसार दिनचर्या व्यतीत कीजिए और अपथ्य एवं विरुद्धाहार का सेवन कदापि न करें.
विरुद्धहार लेने से त्वचा के अनेक स्व-प्रतिरक्षित रोग उत्पन्न हो जाते हैं. विरुद्धाहार अर्थात वे भोजन जो एक-साथ नही लेने चाहिए जैसे कि मछली और दूध या इससे बने पदार्थ, नमक और दूध, बहुत अधिक दही खाना, काली माह की दाल, समुद्री जीवों (sea-food) को खाने से, खट्टे और नमक वाले पदार्थ खाने से यह रोग उत्पन्न हो सकता है. शराब और तंबाकू के सेवन से भी यह रोग शुरू हो सकता है. आयुर्वेद में रोग उत्पत्ति में आहार की महत्ता पर विशेष ध्यान दिया गया है.
सोरायसिस का उपचार (Ayurvedic Treatment Of Psoriasis In Hindi)
आयुर्वेद की चिकित्सा पद्धति के अनुसार शरीर से जीव विष को निकालना प्राथमिकता है. यह पंचकर्म की पद्धति द्वारा किया जाता है.सबसे पहले रोगी को औषधीय घृत जो रोगी की प्रकृति पर निर्भर करता है, इसका सेवन 5-7 दिन तक करना होता है. इसके पश्चात वमन एवं विरेचन द्वारा आँतों को सॉफ किया जाता है. इसके औषधि युक्त लस्सी की धारा सिर पर गिराई जाती है. तत्पश्चात पूरे शरीर पर मिट्टी और औषधियों द्वारा लेप किया जाता है.

रोग में पथ्यापथ्य (Ayurvedic Dietary Recommendations For Psoriasis In Hindi)
शाकाहारी भोजन का सेवन ही रोगी के लिए हितकर है.दही, काली माह की दाल, मिर्च-मसालेदार भोजन और नमक का सेवन कमतर रखना चाहिए. ठंडे, फ्रिज में रखे भोजन का सेवन रोगी को बिल्कुल भी नही करना चाहिए.

सोरायसिस में लाभकारी आयुर्वेदिक औषधियाँ (Ayurvedic Medications Useful In Psoriasis In Hindi)
काकमाची के पत्तों के रस को हर रोज़ लगाना हितकर है. इससे त्वचा पर सूजन में कमी होती है तथा खुजली और त्वचा की परत पर आराम मिलता है.लहसुन का सेवन आवश्य करें: लहसुन द्वारा रक्त की शुद्धि होती है. हर रोज़ सुबह खाली पेट लहसुन खाने से इस रोग में लाभ मिलता है.
चमेली के फूल: चमेली के फूलों द्वारा इस रोग में अत्यंत लाभकारी परिणाम देखने को मिलते हैं. इन फूलों को पीसकर इनका लेप ग्रस्त क्षेत्र में करना चाहिए. इससे दर्द एवं कुज़ली वाली जाल्न में आराम मिलता है.

गुग्गूल: एक आयुर्वेदीय औषधि है जिसका गोंद अनेक प्रकार के औषधीय लाभ देता है. इसमें जलन-रोधक और वसा-नियंत्रित करने की गुणवत्ता पाई जाती है. यह वात और कफा दोनो का शमन कर आराम प्रदान करता है. कैषोर गुग्गूल का प्रयोग इस रोग में अत्यंत लाभदायक है.नीम तेल का उपयोग भी जलन को शांत कर अनेक संक्रामक रोगाणुयों से भी ग्रस्त क्षेत्र को सुरक्षा प्रदान करता है. यह फफूंदी और रोगाणुयों को नष्ट कर देता है.
हरिद्रा इसका प्रयोग घरेलू मसाले की तरह किया जाता है और यह एक सप्प्लिमेंट (supplement) की तरह भी इस्तेमाल की जाती है. यह दर्द, सूजन और जलन कम करने में भी सहायक है.
COMMENTS